Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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डॉक्टर साहब ने स्पष्ट कह दिया कि पिछला बयान शास्त्रोक्त न था, लाश के हृदय और यकृती की दशा देखकर मैंने जो धारणा की थी वह शास्त्रानुकूल नहीं थी। बयान देने के पहले मुझे पुस्तकों को देखने का अवसर न मिला था। इन स्थलों में खून का रहना सिद्ध करता है कि उसकी क्रिया आकस्मिक रीति पर बन्द हो गई। यन्त्राघात के पहले गला घोंटने से यह क्रियाक्रम से बन्द होती और इतनी मात्रा में रक्त का जमना सम्भव न था। अपनी युक्ति के समर्थन में उन्होंने कई प्रसिद्ध डॉक्टरों की सम्मति का भी उल्लेख किया। डॉ. इर्फान अली ने भी इस विषय पर कई प्रामाणिक ग्रंथों का अवलोकन किया था। उनकी जिरहों ने प्रियनाथ की धारणा को और भी पुष्ट कर दिया। तीसरे दिन सरकारी वकील की जिरह शुरू हुई। उन्होंने जब वैद्यत प्रश्नों से प्रियनाथ को काबू में आते न देखा तब उनकी नीयत पर आक्षेप करने लगे।

वकील– क्या यह सत्य है कि पहले जिस दिन अभियोग का फैसला सुनाया गया था उस दिन उपद्रवकारियों ने आपके बँगले पर जाकर आपको घेर लिया था?

प्रिय– जी हाँ।

वकील– उस समय बाबू प्रेमशंकर ने आपको मार-पीट से बचाया था?

प्रिय– जी हाँ, वह न आते तो शायद मेरी जान न बचती।

वकील– यह भी सत्य है कि आपको बचाने में यह स्वयं जख्मी हो गये थे?

प्रिय– जी हाँ, उन्हें बहुत चोट आयी थी। कन्धे की हड्डी टूट गयी थी।

वकील– आप यह भी स्वीकार करेंगे कि वह दयालु प्रकृति के मनुष्य हैं और अभियुक्तों से उन्हें सहानुभूति है।

प्रिय– जी हाँ, ऐसा ही है।

वकील– ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि उन्होंने आपको अभियुक्तों की रक्षा करने पर प्रेरित किया हो?

प्रिय– मेरे और उनके बीच में इस विषय पर कभी बातचीत भी नहीं हुई।

वकील– क्या सम्भव नहीं है कि उनके एहसान ने आपको ज्ञात रूप से बाधित किया हो।

प्रिय– मैं अपने व्यक्तिगत भावों को अपने कर्तव्य से अलग रखता हूँ। यदि ऐसा होता तो उससे पहले बाबू प्रेमशंकर ही अवहेलना करते।

वकील साहब एक पहलू से दूसरे पर आते थे, पर प्रियनाथ चालाक मछली की तरह चारा कुतर कर निकल जाते थे। दो दिन तक जिरह करने के बाद अन्त में हार कर बैठ रहे।

दारोगा खुर्शेद आलम का बयान शुरू हुआ। यह उनके पहले बयान की पुनरावृत्ति थी, पर दूसरे दिन इर्फान अली की जिरहों ने उनको बिलकुल उखाड़ दिया। बेचारे बहुत तड़फड़ाये पर जिरह जाल से न निकल सके।

इर्फान अली को अब अपनी सफलता का विश्वास हो गया। वह आज अदालत से निकले तो बाँछें खिली जाती थीं। इसके पहले भी बडे़-बड़े मुकदमों की पैरवी कर चुके थे और दोनों जेब नोटों से भरे हुए घर चले थे, पर चित्त कभी इतना प्रफुल्लित न हुआ था। प्रेमशंकर तो ऐसे खुश थे मानो लड़के का विवाह हो रहा हो।

इसके बाद तहसीलदार साहब का बयान हुआ। वह घंटों तक लखनपुर वालों की उद्दंडता और दुर्जनता का आल्हा गाते रहे, लेकिन इर्फान अली ने दस ही मिनट में उसका सारा ताना-बाना उधेड़ कर रख दिया।

इर्फान– आप यह तसलीम करते हैं कि यह सब मुलजिम लखनपुर के खास आदमियों में है?

तहसीलदार– हो सकते हैं, लेकिन जात के अहीर, जुलाहे और कुर्मी हैं।

इर्फान– अगर कोई चमार लखपती हो जाय तो आप उससे अपनी जूती गँठवाने का काम लेते हुए हिचकेंगे या नहीं?

तहसीलदार– उन आदमियों में कोई लखपती नहीं है।

इर्फान– मगर सब काश्तकार हैं, मजदूर नहीं। उनसे आपको घास छिलवाने का क्या मजाज था?

तहसीलदार– सरकारी जरूरत।

इर्फान– क्या यह सरकारी जरूरत मजदूरों को मजदूरी दे कर काम कराने से पूरी न हो सकती थी?

तहसीलदार– मजदूरों की तायदाद उस गाँव में ज्यादा नहीं है।

इर्फान– आपके चपरासियों में अहीर, कुर्मी या जुलाहे न थे? आपने उनसे यह काम क्यों न लिया?

तहसीलदार– उनका यह काम नहीं है।

इर्फान– और काश्तकारों का यह काम है?

तहसीलदार– जब जरूरत पड़ती है तो उनसे भी यह काम लिये जाते हैं।

इर्फान– आप जानते हैं जमीन लीपना किसका काम है?

तहसीलदार– यह किसी खास जात का काम नहीं है।

इर्फान– मगर आपको इससे तो इन्कार नहीं हो सकता कि आम तौर पर अहीर और ठाकुर यह नहीं करते?

तहसीलदार– जरूरत पड़ने पर कर सकते हैं।

इर्फान– जरूरत पड़ने पर क्या आप अपने घोड़े के आगे घास नहीं डाल देते? इस लिहाज से आप अपने को साईस कहलाना पसन्द करेंगे?

तहसीलदार– मेरी हालत का उन काश्ताकारों से मुकाबला नहीं हो सकता।

इर्फान– बहरहाल यह आपको मानना पड़ेगा कि जो लोग जिस काम के आदी नहीं हैं वह उसे करना अपनी जिल्लत समझते हैं, उनसे यह काम लेना बेइन्साफी है। कोई बरहमन खुशी से आपके बर्तन धोयेगा। अगर आप उससे जबरन यह काम लें तो वह चाहें खौफ से करे पर उसका दिल जख्मी हो जायेगा। वह मौका पायेगा तो आपकी शिकायत करेगा।

तहसीलदार– हाँ, आपका यह फरमाना वजा है, लेकिन कभी-कभी अफसरों को मजबूर हो कर सभी कुछ करना पड़ता है।

इर्फान– तो आपको ऐसी हालतों में नामुलायम बातें सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिये। फिर लखनपुर वालों पर इलजाम रखते हैं, यह इनसाफी फिकरत का कसूर है। अब तो आप तसलीम करेंगे कि काश्तकारों से जो बेअदबी हुई वह आपकी ज्यादती का नतीजा था।

तहसीलदार– अफसरों की आसाइश के लिए...

तहसीलदार साहब का आशय समझ कर जज ने उन्हें रोक दिया।

इर्फान अली जब संध्या समय घर पहुँचें तब उन्हेंबाबू ज्ञानशंकर का अर्जेंट तार मिला। उन्होंने एक जरूरी मुकदमें की पैरवी करने के लिए बुलाया था। एक हजार रुपये रोजाना मेहनताना का वादा था। डॉक्टर साहब ने तार फाड़ फेंक दिया और तत्क्षण तार से जवाब दिया– खेद हैं मुझे फुर्सत नहीं है। मैं लखनपुर के मामले की पैरवी कर रहा हूँ।

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1 Comments

Gunjan Kamal

14-May-2022 04:09 PM

👏👌🙏🏻

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